अध्ययन के मुताबिक मध्य महाराष्ट्र में कृषि उत्पादकता पर पड़ सकता है प्रतिकूल प्रभाव

मुंबई: बारामती में विद्या प्रतिष्ठान के कला, विज्ञान और वाणिज्य कॉलेज में भूगोल विभाग द्वारा किए गए एक नए अध्ययन के अनुसार, घटते जल स्तर, बढ़ते तापमान और बदलते फसल पैटर्न जैसे कारक मध्य महाराष्ट्र (Central Maharashtra) के कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला है। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित खबर के मुताबिक, यह अध्ययन राज्य के सात सबसे सूखे जिलों- पुणे, सांगली, उस्मानाबाद, बीड, सतारा, सोलापुर और अहमदनगर के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है, जहां औसत वार्षिक वर्षा 700 मिमी से कम है।

स्प्रिंगर नेचर की पत्रिका ‘रीजनल एनवायरनमेंटल चेंज’ के नवीनतम अंक में प्रकाशित अध्ययन में दक्षिण मध्य महाराष्ट्र में सिना, करहा, येरला, मान और अग्रनी नदी घाटियों में मानव-प्रेरित सूखे में वृद्धि की चेतावनी दी गई है। आपको बता दे की, यह क्षेत्र पश्चिमी घाट के पूर्व में ‘रेन-शैडो’ में स्थित है और ऐतिहासिक रूप से सिंचित फसलों के बजाय वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर रहा है।

भूगोल के सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के लेखक राहुल तोडमल ने हिंदुस्तान टाइम्स के साथ हुई बातचीत में कहा, सरकारी और गैर-सरकारी समर्थन के साथ दो दशकों में यह परिदृश्य बदल गया है। गन्ना, प्याज, गेहूं और मक्का जैसी अधिक पानी वाली फसलों के लिए सिंचाई के लिए तालाबों और बोरवेल को अपनाया गया। अगले कुछ दशकों में इसके बड़े नकारात्मक प्रभाव सामने आएंगे। उन्होंनें कहा, हमारे अध्ययन ने फसल पैटर्न, तापमान और बारिश में बदलते रुझानों को देखा और पाया कि यह क्षेत्र महत्वपूर्ण जल और गर्मी के दबाव में है। यह उन फसलों के लिए प्रतिकूल है, जो आजकल किसानों द्वारा पसंद की जा रही हैं।

अध्ययन का एक पहलू ‘प्लांट हीट स्ट्रेस’ (PHS) दिनों की संख्या को देखता है जो विभिन्न प्रकार की फसलों के अधीन होते हैं। एक PHS दिवस वह दिन होता है, जिस दिन फसल सहनीय तापमान की ऊपरी दहलीज के संपर्क में आती है। अध्ययन क्षेत्र में, ऐसे दिन हर दशक में दो से पांच तक बढ़ रहे हैं, खासकर गन्ना, प्याज, गेहूं और मक्का जैसी फसलों के लिए, जिन्हें ठंडे तापमान की आवश्यकता होती है। क्षेत्र में भूजल तालिका एक साथ लगभग 7 सेंटीमीटर प्रति वर्ष गिर रही है, जो उपज को भी प्रभावित करेगा। ये अनुमान भारत मौसम विज्ञान विभाग, हाइड्रोलॉजिकल डेटा उपयोगकर्ता समूह, राज्य कृषि विभाग, भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी, और राष्ट्रीय समुद्रीय और वायुमंडलीय प्रशासन, यूएसए से प्राप्त आंकड़ों पर आधारित हैं।

उन्होंने कहा, हम बहुत निकट भविष्य में नकदी फसलों की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव देखना शुरू कर देंगे। मॉडल यह भी सुझाव देते हैं कि, 2050 तक अध्ययन क्षेत्र में लगभग 1.05 डिग्री सेल्सियस के तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि होगी, जिससे पानी की कमी की समस्या पैदा होगी और बारिश आधारित फसलों पर भी प्रभाव पड़ेगा। इस समय सीमा में गन्ने की उत्पादकता में लगभग 20% की गिरावट आने की उम्मीद है, जबकि ज्वार में 18% तक की गिरावट आ सकती है। हम ज्वार, बाजरा और अन्य फसलों की खेती को बढ़ावा नहीं देकर प्राकृतिक संकट को बढ़ा रहे हैं।

प्रोफेसर तोडमल ने अंतिम विश्लेषण में कहा कि, कृषि के प्रति व्यावसायिक दृष्टिकोण होना स्पष्ट है, लेकिन उन्होंने आगाह किया कि किसानों की प्राथमिकताओं में ये बदलाव कृषि जल की मांग को एक अस्थिर स्तर तक बढ़ा सकते हैं। किसानों को ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर जैसी आधुनिक जल-बचत तकनीकों को अपनाने के लिए बाध्य करना आवश्यक है। पानी की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन किया जा सकता है और कृषि विभाग कुछ फसलों को सीमित करने या बढ़ावा देने के लिए नीतियों को डिजाइन कर सकता है।

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