आइए जानते है कच्चे तेल की कीमतें जीरो से कम होने की क्या है वजह…

मुंबई: कोरोना वायरस ने पुरे विश्व में एक संकट का पहाड़ खड़ा कर दिया। और इसके चपेट में लगभग हर उद्योग आया है। ना ही सिर्फ इसने लोगो को नुकसान पहुंचाया है बल्कि एक जबरदस्त आर्थिक संकट में भी ढकेल दिया है, जिससे बाहर निकलने में लंबा वक्त जरूर लग सकता है। कोरोना महामारी ने तेल उद्योग में एक बडा कोहराम मचाया है, जिसके चलते तेल की कीमतों में भारी गिरवाट देखने को मिली है।

20 अप्रैल को अमेरिका में कच्चे तेल की कीमतें शून्य से नीचे चली गईं। शून्य से नीचे जाने पर यह कहा जाने लगा है कि तेल कंपनियां खरीदारों को मुफ्त में तेल देंगी। साथ में उसका परिवहन खर्च भी देगी। इतिहास में यह पहली बार हो रहा है। काला सोना कहे जाने वाला कच्चे तेल के चक्कर में दुनिया ने कई भीषण युद्ध देखे हैं। काला सोना अचानक दुनिया में अनचाही चीज क्यों हो गया। क्या अमेरिका में तेल की कीमतें शून्य से नीचे जाने का फायदा भारत को होगा?

आइए जानते है कच्चे तेल की कीमतें जीरो से कम होने की क्या है वजह?

इसे बेचने के लिए कच्चे तेल के बेंचमार्क तय किये गये हैं- ब्रेंट और डब्ल्यूटीआई। डब्ल्यूटीआई का अर्थ है-वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट। एशिया और यूरोप में जो हम बेंचमार्क इस्तेमाल करते हैं वह है ब्रेंट और अमेरिका में इस बेंचमार्क को डब्ल्यूटीआई कहते हैं। गत 20 अप्रैल को अमेरिका में कच्चे तेल की किम्मत बहुत ज्यादा गिर गई और लुढ़ककर शून्य से नीचे चला गया।

तेल की कीमतों का शून्य से नीचे जाने का मुख्य कारण कोरोना वायरस का प्रकोप है। इस प्रकोप के चलते दुनिया भर में परिवहन व्यवस्था बंद पड़ी हुई है। फैक्टरियां बंद हैं, नतीजन तेल की खपत बहुत कम हो गई है, खपत कम होने से तेल की खरीद कम हो गई है। अमेरिका के बाजार में तेल की कीमत घटने का मुख्य कारण मांग का अभाव रहा है।

तेल की कीमत फ्यूचर मार्केट में तय होती है, यानी अगले एक दो महीने के सौदे पहले ही तय हो जाते हैं। किस ग्राहक को कितना तेल लेना है और किस कीमत पर लेना है, यह फ्यूचर्स मार्केट में तय होता है। अगर हम अमेरिका के संदर्भ में फ्यूचर मार्केट की बात करें तो डब्ल्यूटीआई का कारोबार है वह न्यूयार्क मर्केंटाइल एक्सचेंज (एनवायएनईएक्स) में होता है। इसमें दो तरह के कारोबारी होते हैं। एक वो जो असली सप्लायर खरीदार होते हैं और दूसरे वे जो तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का फायदा लेने के लिए कारोबार करते हैं। अमेरिका के बाजारों में इन दोनों ने मई महीने में तेल खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई है। जिसके चलते इसकी किम्मत शून्य से निचे चली गई।

अब हालत ऐसे है की तेल का इस्तेमाल हो नहीं रहा है और उत्पादन होता जा रहा है, ऐसे स्थिति में अमेरिका में सारे कच्चे तेल को स्टोरेज करने वाले जगह भर चुके है और उत्पादन हो रहे तेल को रखने की जगह नहीं बची है और अब उसके स्टोरेज की समस्या बन गयी है। अब सवाल यह उठता है की फिर कच्चे तेल के उत्पादन को रोक क्यों नहीं दिया जाता। खैर आपको बता दे, इसे रोक कर फिर उत्पादन शुरु करने में बहुत ज्यादा खर्च आता है, इसलिए कम्पनियाँ घाटा सहने को तैयार है।

अगर भारत की बात करे तो हमारा देश तेल का कारोबार खाड़ी के देशों से ब्रेंट में करता है। यदि भारत चाहे तो मौजूदा संकट में नीचे आए तेल को अपने यहां भी स्टोर कर सकता है लेकिन उसका परिवहन लागत ज्यादा होने से वह ऐसा नहीं कर सकता। सारे कारोबार डॉलर में होते है और फ़िलहाल डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर है। यही सब कारणों से भारत इसका फायदा अच्छे से नहीं उठा पा रहा।

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