राष्ट्रीय शर्करा संस्थान, कानपुर में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के वैज्ञानिकों के लिए आयोजित पांच दिवसीय कार्यक्रम का आज समापन हुआ। यह कार्यक्रम चीनी मिलों एवं डिस्टलरियों (आसवनियों) में एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट के डिजाइन और संचालन के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं के बारे में प्रशिक्षण तथा ताजे पानी के उपयोग तथा एफ्लुएंट को कम करने की नई प्रौद्योगिकियों की जानकारी प्रदान करने हेतु आयोजित किया गया था।
समापन के दिन, प्रतिभागियों ने शीरा और अनाज आधारित आसवनी इकाइयों के संचालन का प्रायोगिक ज्ञान प्राप्त किया। डॉ. (श्रीमती) आर. अनंतलक्ष्मी, सहायक आचर्य, जैव रसायन ने संस्थान की नैनो-इथेनॉल और ब्रेवरी इकाइयों में जानकारी प्राप्त की। प्रतिभागियों को नवीन फर्मेन्टेशन एवं डिस्टीलेशन तकनीकों के बारे में बताया गया जो उच्च उत्पादकता, कम ऊर्जा की खपत और कम एफ्लुएंट उत्पादन में सहायक है।
समापन समारोह में श्री नरेन्द्र मोहन, निदेशक, राष्ट्रीय शर्करा संस्थान, कानपुर द्वारा प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र प्रदान किए गए। अपनी समापन टिप्पणी में, निदेशक, राष्ट्रीय शर्करा संस्थान ने न केवल “सर्वोत्तम उपलब्ध तकनीकों” को अपनाकर एफ्लुएंट को कम करने पर बल दिया, बल्कि “वेस्ट को वेल्थ” में बदलने पर भी जोर दिया। शीरा आधारित आसवनियाँ, जिन्हें प्रदूषण का एक प्रमुख श्रोत माना जाता है, वह आसवनी से प्राप्त होने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड को ड्राई-आइस (सूखी बर्फ) में परिवर्तित करके वैक्सीन (टीकों) और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों के संरक्षण तथा सल्फर डाई-ऑक्साइड के स्थान पर गन्ने के रस के परिशोधन में प्रयोग करके अग्रणी भूमिका निभा सकता है। इसी तरह, इन्सीनिरेशन बॉयलरों की राख से भारी मात्रा में पोटाश प्राप्त किया जा सकता है और पोटाश प्राप्त करने के उपरान्त बची हुए राख का उपयोग ईंटों और छत के पैनल बनाने के लिए किया जा सकता है।
जहां तक चीनी मिलों का संबंध है, हमारे उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए और हमें चीनी मिलों में पेराई कार्य शुरू होने के समय के अलावा किसी अन्य समय ताजे पानी के उपयोग को रोकने के लिए एक लीक से हटकर सोच विकसित करनी होगी। उन्होंने यह भी कहा कि गन्ने में उपलब्ध पानी की मात्रा को देखते हुए, चीनी मिलें अपनी विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए समाज को पानी उपलब्ध कराने का एक स्रोत बन सकती हैं।