नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट द्वारा चीनी मिलों के पर्यावरण परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव लाने में मदद

कानपुर: नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट (एनएसआई-कानपुर) के अथक प्रयासों से गंगा बेसिन में स्थित चीनी मिलों और मोलासेस आधारित डिस्टिलरीयों के पर्यावरण परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। संस्थान ने 4 साल पहले ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ कार्य किया था और उत्साहजनक परिणाम अब देखे जा रहे हैं। नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट के निदेशक नरेंद्र मोहन ने कहा कि, संस्थान ने इन उद्योगों में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए चार्टर तैयार करने में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान की, जो “सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध प्रौद्योगिकियों”, “पर्यावरण प्रकोष्ठ का निर्माण” और “ऑनलाइन निगरानी प्रणाली” पर केंद्रित है। “संस्थान ने इन चार्टरों में निहित प्रावधानों को लागू करने में भी इन उद्योगों को सहायता प्रदान की।

मोहन ने कहा कि, इन प्रयासों के कारण मोलासेस आधारित डिस्टिलरी “जीरो लिक्विड डिस्चार्ज” पर काम कर रही है। संस्थान के विशेषज्ञों ने गंगा बेसिन में 52 चीनी मिलों के अपने वार्षिक निरीक्षण में देखा कि एक टन गन्ने के प्रसंस्करण के लिए ताजे पानी की खपत 2017-18 में 140-180 लीटर थी, जो 2020 – 21 में केवल 80-100 लीटर हो गई है। इन चीनी मिलों से निकलने वाले अपशिष्ट की मात्रा भी 2017-18 में 180-220 लीटर प्रति टन गन्ना से घटकर 2020-21 में 120-150 लीटर प्रति टन हो गई है। pH, TSS और BOD आदि के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानदंडों के अनुरूप उपचारित अपशिष्ट का हॉर्टिकल्चर और सिंचाई के पानी के रूप में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है।

मोलासेस आधारित डिस्टिलरीज में, जिन्हें अत्यधिक प्रदूषणकारी माना जाता है, नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट, कानपुर द्वारा किए गए प्रयासों के कारण स्थिति में काफी परिवर्तन हो रहा है। 2017-18 से 2020-21 की अवधि के दौरान गंगा आधार पर 29 डिस्टिलरीज के निरीक्षण के दौरान प्राप्त आंकड़ों से भी यह बात सामने आई है। पहले प्रति लीटर अलकोहल के लिए ताजे पानी की आवश्यकता 12-14 लीटर थी, जो 2020-21 में घटकर केवल 6-7 लीटर रह गई है।

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